मैं धन्यवाद देना चाहूंगा शार्क टैंक इंडिया को जिसने स्टार्टअप के बारे में अच्छी जागरूकता फैलाई हैं। और बोनस के तौर पर सोशल मीडिया को कुछ नए मीम दिए।
सोचने वाली बात हैं, हमारे समाज में स्टार्ट अप को लेकर जागरूकता की भरी कमी हैं। हमारे बड़े बुजुर्ग यंग जनरेशन के नए बिज़नेस को ले कर हमेशा आशंकित रहते हैं।
ख़ासकर हमारे समाज की सोच सरकारी नौकरी प्रधान हैं। हमारे यही बुजुर्ग युवाओ को चातक पक्षी की भाँती RRB, SSC और UPSC के स्वाति नक्षत्र की बूंदो को ग्रहण करने का संकल्प दिलाते हैं।
उनके विचार कुछ इस प्रकार होते हैं कि प्राइवेट सेक्टर और स्टार्टअप में आपको बहुत मेहनत करना होगा, जीवन में वर्क लाइफ बैलेंस की प्राप्ति दुर्लभ हो जाएगी।
इसलिए हे महामानव तुम रात दिन एक करके इस कभी न ख़तम होने वाली सरकारी नौकरी की चयन प्रक्रिया के लिए जी तोड़ मेहनत करो। जो स्वाद अकरमरयता से कमाई गई कर मुक्त कमाई में हैं; वो स्वाद तीस प्रतिशत इनकम स्लैब वाली प्राइवेट नौकरी की कमाई से मिल ही नहीं सकता।
इसलिए, धैर्य के साथ अपने जीवन के उस दुर्लभ समय के आगमन की प्रतीक्षा करो। सरकारी नौकर बनने की कामना रखो!
ऊपर से स्टार्टअप कैश बर्न स्ट्रेटेजी से काम करते हैं। व्यापर बढ़ने के लिए पैसो को जलाना ( या पानी की तरह बहाना ) एक सफल प्रबंध निति या स्ट्रेटेजी कैसे हो सकती हैं? यह सवाल हमारे बड़े बुजुर्ग अक्सर पूछते हैं। इस सवाल का कोई भी जवाब उन्हें संतुष्ट नहीं कर पाता।
वह अलग बात हैं की हमारे समाज के बड़े बुजुर्गो ने जीवन भर बचत करते हैं और अपने संतानो की शादी में दिल खोल कर पैसे पानी में बहा सकें। इनमें से कुछ लोगों ने तो अपने हैसियत से ज्यादा भी ख़र्च किया होता हैं शादी जैसे मौको पर। किन्तु विडम्बना यह हैं की वह कैशबर्न की निति उनके लिए व्यावहारिक नहीं होती।
यह ठीक वैसा ही Paradox हैं जैसे हमारे आदर्शवादी बुजुर्ग समाज ने दहेज़ प्रथा को एक व्यावहारिक मान्यता दे रखी हैं।
बहरहाल, नए युग के स्टार्टअप वाले लोग भी ऐसे ही अलबेले होते हैं। आखिरकार वह भी तो हमारे समाज के उपज की क्रीमी लेयर हैं।
कुछ दिनों पहले मैं एक स्टार्टअप फाउंडर के अनुभवों पर प्रकाशित पुस्तक पढ़ रहा था। पढ़ते पढ़ते एक अध्याय ऐसा भी आया जिसमे स्टार्टअप वाले भाईसाहब ने बताया की बिज़नेस चलाने के लिए उन्हें पैसो की भरी किल्लत झेलनी पड़ी थी। बैंक अकाउंट में मात्र दो चार हज़ार की रकम ही बची थी। और उन्हें पुरे स्टाफ को सैलरी देना था। बड़ी मुश्किल से इधर उधर से व्यवस्था करके, लोन लेकर, अपने शेयर बेच कर उन्होंने रकम जुटाई और धंधे को आगे बढ़ाया।
मैं बहुत प्रभावित हुआ था उनके इस संघर्ष को पढ़ कर। उस पुस्तक के अगले अधयाय में फिर मुझे यह भी पता चला की फंडिंग उठाने के बाद यह महाशय यूरोप में एक महीने छुट्टी भी बिताने जाते हैं। इससे मुझे कैशबर्न के बेहिसाब खर्चो का सही ब्यौरा मिला। कैशबर्न का एक बड़ा हिस्सा ऐसी बंदरबांट में भी जाता हैं। और स्टार्टअप चलाने वाले अपने बिज़नेस और निजी खर्चो के लिए अलग कहते रखते हैं। जिनका आपस में कोई सम्बन्ध नहीं होता।
इसमें शायद कुछ गलत नहीं हैं। अगर कोई स्टार्टअप फाउंडर CEO की कुर्सी पर हैं तो उसे खुद को बेहतरीन मेहनताना देना ही चाहिए।
मगर जो भी हो, सरकारी नौकरी के बिना उसके जीवन का कोई मूल्य नहीं। :P
- फ़्रीवास्तवजी
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