दोस्तों जब भी मैं समाचार देखने की कोशिश करता हूं तो मुझे बताया जाता है कि कोरोना के केसेस कितने बढ़ गए. लगता है लॉक डाउन लग ही जाएगा लेकिन लॉक डाउन का नाम सुनते ही मन में मिश्रित भावनाओं का एक भंवर सा बन जाता है. मेरे मस्तिष्क में निगेटिव विचारों का एक अटैक भी आता है.
खास करके पैदल चल रहे श्रमिकों की तस्वीरें स्मृति से निकलकर मेरे सम्मुख प्रकट हो जाती है. वह भी एक ऐसा दौर था, जब हमने अपने देशवासियों को ही प्रवासी बोलकर संबोधित किया था. और उनकी इस वेदना को टैगोर से दिखने वाले एक कवि ने तपस्या बताया था.
(Image Source : India Today )
लेकिन जब मैं थोड़ा और आत्म चिंतन करता हूं तो मुझे एहसास होता है कि करोना के समाचार नेगेटिव और यूज़लेस समाचार होते हैं. इसलिए फिर मैं दूसरे समाचारों की तरफ अपना रुख करता हूं.
ट्विटर पर जाता हूं तो मुझे अमित शाह का ट्वीट दिख जाता है कि बंगाल की फला रैली में लाखों का जनसैलाब उमड़ा हुआ था. मन में एक रोमांच सा आ जाता है.
कोरोना की नेगेटिविटी से निजात पाकर के मन प्रसन्न हो जाता है चुनावी रैलियों में उमड़ी हुई भीड़ की तस्वीरें देखकर. रैलियों मैं मुस्कुराते और अति उत्साहित जनता को देख कर के मुझे बुहान के वाटर पार्क में पार्टी कर रहे चीनी नागरिकों की याद आ जाती है.
चुनावों का कवच, लोकतंत्र की ढाल, --> मास्क सैनिटाइजर और सामाजिक दूरी से ज्यादा प्रभावी है.
Addressed a rally in Tirunelveli.
— Amit Shah (@AmitShah) April 3, 2021
On one side there is NDA, committed to serving the poor and farmers of Tamil Nadu and on the other side is UPA, devoted to serve two families.
I am confident that the people of the state will again reject the corrupt and dynastic UPA. pic.twitter.com/zrxmFaqOT9
धन्य हो नोएडा से प्रसारित होने वाले हमारे खबरिया चैनलों का जो मुझे उत्तर भारत में बैठे-बैठे देश के सुदूर कोने बंगाल केरल तमिल नाडु पुदुचेरी और असम जैसे राज्यों से हमारे राजनेताओं के भाषण हम तक लाइव पहुंचाते हैं.
TRP और विज्ञापनों की अंधी दौड़ में शामिल यह समाचार चैनल हमारे Premier के भाषण के दौरान विज्ञापन दिखाने से भी कतराते हैं.
जब तक साहेब की बात पूरी ना हो जाए मजाल है की हमें कोई कमर्शियल ब्रेक परोसा जाए.
फिर मेरे मन में एक विचार आता है, अगर मैं उत्तर भारत में बैठा बैठा यह सारे भाषण देख और सुन सकता हूं तो फिर क्या यह समाचार चैनल उन प्रदेशों में प्रसारित नहीं होते जहां पर यह चुनावी रैलियां हो रही हैं.माना की समाचार चैनल का सब्सक्रिप्शन जनता में नहीं ले रखा होगा लेकिन फिर भी राजनीतिक पार्टियों के यूट्यूब चैनल पर भी तो यह भाषण प्रसारित होते हैं. यहां तक की प्रधानमंत्री कार्यालय का ऑफिशियल यूट्यूब चैनल भी चुनावी रैलियां दिखा देता है. और बड़े भाई अंबानी की बदौलत इंटरनेट का डाटा भी तो सस्ता हो रखा है. स्मार्टफोन भी जन जन के हाथ में है.
ऐसी परिस्थिति में भी , जनता अपने प्रिय नेता का दीदार करने के लिए भाषण के मैदान तक खींची चली जाती है.
करोना काल के दौरान दुनिया की सबसे बड़ी पॉलिटिकल पार्टी में डिजिटल रैलियों का प्रयोग भी किया था.
कभी-कभी मेरे मन में यह सवाल आता है - डिजिटल रैलियों का वह प्रयोग असफल क्यों हुआ होगा? यह एक सताने वाला सवाल है कि हमारे प्रधानमंत्री ऑफलाइन मोड में उमड़े हुए जन सैलाब को डिजिटल इंडिया के सपने दिखाते हैं और हम स्क्रीन के सामने बैठे उनके साइबर योद्धा उनके हर उद्घोष पर online जय जय कार लगाते हैं.
जनसैलाब में कुछ तो पत्रकार होते हैं और कुछ कार्यकर्ता जो इस पूरी व्यवस्था में अपना कर्तव्य निभाते हैं. लेकिन बाकी लोग चुनावी रैलियों में क्यों जाते हैं? मेरी तरह यह सारे भाषण घर बैठे बैठे देखे और सुने जा सकते हैं.
क्या वे सारे लोग इस बात की वैलिडेशन के लिए जाते हैं की रैलियों में कितने लोग आते हैं? या फिर यह सारे लोग टू मच इंटरनेट बोलकर डिजिटल डिटॉक्सिफिकेशन के लिए यहां आते हैं?
एक और छोटा सा सवाल चुपके से कोने में आकर खड़ा हो जाता है, पूछता है मुझसे कि
"क्या यह जनसैलाब भी टू मच ऑफ डेमोक्रेसी की कैटेगरी में आता है?"
विचार मंथन के इस भवन में आखिरकार मुझे इस बात का एहसास हो जाता है की, यह जो चुनाव होते हैं - वह इलेक्शन कमिशन यानी कि केंद्रीय चुनाव आयोग का अपना स्वयं का मनरेगा प्रोग्राम होते हैं. और इस मनरेगा के प्रायोजक हमारी राजनैतिक पार्टियां होती है.
चुनावों का मौसम एक साइक्लिकल एंप्लॉयमेंट अपॉर्चुनिटी होती है. वह तो विडंबना है हमारे केंद्रीय और राज्य स्तरीय एजेंसियों की जो इस व्यवस्था को रोजगार के रूप में चिन्हित नहीं करते.
पोस्टर निर्माता, दारू विक्रेता, चिकन विक्रेता, चखना विक्रेता, गाड़ी वाला, टीवी चैनल पर आया राजनीतिक विशेषज्ञ, और उससे सवाल पूछने वाले एंकर, ग्राउंड रिपोर्ट करने वाले बदहाल रिपोर्टर्स, कार्यकर्ता चुनावी पार्टियों का, तंबू वाला, बल्लीवाला, माइक वाला, डेकोरेशन वाला, फूल वाला, twitter warrior, whatsapp group admin, Poll data analysts, social engineer,opinion poll, exit poll, इत्यादि; ऐसे कितने रोजगार हैं जो चुनावी मौसम में पलते हैं फूलते हैं.
चुनावी भाषणों का श्वेता होना भी तो रोजगार है. ठीक वैसे ही जैसे शाहीन बाग में बैठना भी एक रोजगार का अवसर था. इसीलिए, चुनाव आयोग के इस मनरेगा प्रोग्राम का हमें समर्थन करना चाहिए. चुनावी खर्चों के रोकथाम का थोड़ा बहुत विरोध भी होना चाहिए.
यदि एक राष्ट्र एक चुनाव इंप्लीमेंट हो जाएगा तो रोजगार के इन अवसरों पर एक अर्धविराम जाएगा. अगर विधानसभा और लोकसभा चुनाव साथ-साथ होने लगेंगे तो फिर रोजगार पाने वाले यह सारे श्रोता एक कोंबो ऑफर में ही निपट लेंगे.
बाकी यह बात तो अब पुरानी हो चली है, कितनी व्यंग कारों ने कितनी बार कही है, फिर भी मैं कह देता हूं - कि समय समय पर हर क्वार्टर में कम से कम एक राज्य में चुनाव तो हो ही जाना चाहिए इससे कोरोना के नए mutant variant की रोकथाम में हमारे हेल्थ केयर और प्रशासन को बहुत बड़ी सहायता होती है.
बस इसके बाद मैं नेगेटिव और यूज़ लेस & यूजलेस बट हु केयर्स if पॉजिटिव समाचारों कि इस श्रृंखला को अपने टीवी के रिमोट से और मोबाइल के पावर ऑफ button से बंद करके मैं स्वयं डिजिटल डिटॉक्सिफिकेशन की शरण में offline चला जाता हूं.
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