हम शर्मिंदा हैं और नहीं भी

हम शर्मिंदा हैं और नहीं भी

अगर कोरोना एक Tax होता तो फिर यह अलग-अलग रंगो वाले फंगस; टैक्स पर  लगने वाले अतिरिक्त Cess होते. 

कोरोना की दूसरी लहर सरकारी आंकड़ों के हिसाब से धीमी पड़ रही है। किल्लत्ते अभी भी हैं बस अब मिन्नते काम करनी पड़ रही है। इसलिए अब हमें इधर-उधर के समाचार भी देखने सुनने को मिल जा रहे हैं। यह एक अच्छी बात है। 

कुछ दिनों से एक पुरानी बहस नए सिरे से शुरू हो गई। आयुर्वेद और एलोपैथ में बेहतर कौन? दुर्भाग्य से इस बार इस चर्चा में होम्योपैथ शामिल नहीं हो पाया। 

आयुर्वेद और एलोपैथिक की तुलना करना संतरे और सेब की तुलना जैसा है। योग और मुख्यतः योग और आयुर्वेद Prevention और way of living के पर्याय है। इससे तत्काल लाभ नहीं मिलता। योग और आयुर्वेद के लाभ के लिए संयम और निरंतरता चाहिए। 

एलोपैथ, सर्जरी यह तत्कालिक राहत पहुंचाने के लिए उपयुक्त है। 

अप्रैल और मई 2021 को हम अपने जीवन के अनुभवों से भूलना ही चाहेंगे। और उम्मीद करेंगे की इस तरह के अनुभव हमें फिर कभी देखने को ना मिले। अप्रैल और मई के महीनों में हमारी तैयारी और स्वास्थ्य सुविधाओं की पोल खुल गई है। हमारी पब्लिक हेल्थ केयर सिस्टम में एलोपैथ चिकित्सा पद्धति का अहम रोल है। 
लेकिन सिस्टम का फेल होना एलोपैथ का फेल होना नहीं था, हमारी सरकारों और ब्यूरोक्रेसी के शिकंजे का फेलियर था। इस महामारी का किसी भी चिकित्सा पद्धति में कोई इलाज नहीं है। जो भी दवाई उपलब्ध है वह कोरोना के symptoms का की cure है। मरीज तभी ठीक हो पाता है जब उसका शरीर वायरस को हराने के लिए एंटीबॉडीज बना ले। 

लेकिन एंटीबॉडीज की प्रक्रिया में इस बीमारी के सिम्टम्स हावी हो जाते हैं और मरीज को क्रिटिकल केयर की आवश्यकता होती है। जिसमें वेंटिलेटर और ऑक्सीजन सपोर्ट तक की नौबत भी आ जाती है। 

वेंटिलेटर और ऑक्सीजन की उपलब्धता सरकारों और ब्यूरोक्रेसी की कार्यकुशलता का सवाल है। एलोपैथ कि सफलता या विफलता या साइड इफेक्ट किसी वस्तु के सप्लाई चैन से नहीं मापी जा सकती। एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति तब शुरू होता है जब मरीज इन दवाइयों और उपकरणों का इस्तेमाल शुरू कर दें या कर पाए। 

इसलिए अगर कोई व्यक्ति इस तरह का वक्तव्य दें की कोरोना महामारी में ऑक्सीजन की उपलब्धता से कम और एलोपैथ की दवाइयों से ज्यादा लोग मरे हैं, तो यह बात स्पष्ट हो जाता है की यह एक कवर अप प्रोपेगेंडा है। 

बाबा रामदेव ने अपने इस कथन के लिए माफी मांग ली है। आप यही सोच रहे होगे कि रामदेव को ऐसे गैर जरूरी बयान नहीं देने चाहिए थे। उन्हें सोच कर बोलना चाहिए, बोलकर नहीं सोचना चाहिए कि बाद में माफी मांगी पड़े। 

मेरे विचार से यह एक सोच कर बोला गया वाक्य था। सारे घटनाक्रम पहले से प्लान किए गए थे। क्योंकि हेड लाइन मैनेज करना है। सरकार और सिस्टम की पोल खुली हुई है, ऐसी में एक नया शत्रु तो बनाना ही है। जिसके बारे में चर्चा करके सरकार अपने में अखंड आस्था और श्रद्धा रखने वाले अंध भक्तों की जागृति होने से रोक सकें। 

ऐसे भक्तों के दिमाग में शंका का बीज डालना आवश्यक है। Oxygen aur ventilator की कमी का ठीकरा किसी पर तो फोड़ना है। अगर कोई objective enemy नहीं मिल पा रहा तो एक subjective discussion की शुरुआत करने में कोई बुराई नहीं। 

सरकार को इस बात की चिंता नहीं है कि मेरे जैसे आलोचक उसके समर्थक कैसे बनेंगे। सरकार का फोकस अपने vote bank को संभाल कर संजो कर रखने में है। और हमारी सरकार एक ऐसा राष्ट्रवादी वोट बैंक बना चुकी है जो भारत की प्राचीन उपलब्धियों और संस्कृति पर गर्व करती है। 

इसलिए रामदेव बाबा के कथन जैसे व्हाट्सएप फॉर वर्ड्स इस वोट बैंक का ब्रेन हैक कर चुके हैं। रामदेव बाबा की सांकेतिक माफी का कोई मूल्य नहीं। क्योंकि राष्ट्रवादी collective thinking में यह बात डाल दी गई है की महामारी में हुई मौतों के लिए हेल्थकेयर इंफ्रास्ट्रक्चर से ज्यादा एलोपैथिक थेरेपी जिम्मेदार है। 

सत्ता पक्ष का arrogance तब तक अटल रहेगा जब तक राष्ट्रवादी वोट बैंक उनके साथ मजबूती के साथ जुड़ा रहेगा। इसलिए headline management किया जाता है ताकि वोट बैंक की ब्रेन हैकिंग (Brain Hacking) मे गलती से कहीं कोई एंटीवायरस ना आ जाए। 

जब अहंकार अपनी चरम सीमा पर हो तब क्षमा मांगने का भी प्रश्न नहीं उठता। लेकिन जब सामने वाली पार्टी आपसे ज्यादा भी वीर्यवान हो तो आपको सांकेतिक माफी मांग कर मामले पर मिट्टी डालने का काम तो करना ही पड़ेगा। 

अगर कोई व्यक्ति सत्ता पक्ष का एक सफल प्रचारक हूं और उसके साथ साथ पार्टी का एक अहम sponsor भी हो, तो आप समझ सकते हो पार्टी के लिए वह व्यक्ति कितना मूल्यवान है। आम व्यक्ति अगर सत्ता से सवाल पूछे तो उसके ऊपर f.i.r. हो जाती है। उस व्यक्ति से यदि छवि को ज्यादा खतरा हो तो उस पर UAPA / NSA तक लगा दिया जाता है। CBI, NIA, Income Tax, ED, CCI, सारे विभाग सक्रिय हो जाते हैं।

लेकिन सत्ता पक्ष का अघोषित स्पॉन्सर एक पत्र मात्र से अपने पापों का गंगा स्नान* कर लेता है। 

रामदेव बाबा दोपहर में माफी मांगते हैं और शाम को आज तक की न्यूज़ रूम में बैठ कर के इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के डॉक्टरों के साथ स्तर ही बहस करते हैं। यह रामदेव बाबा का होम टर्फ भी था, जहां लॉजिक नहीं ऊंची आवाज और फंडों का परचम लहरता है। 

उनका arrogance देख कर यह स्पष्ट हो गया की आज वह शर्मिंदा भी थे और नही भी थे। 

कल सुबह डॉक्टर्स अपने कोरोनावरियर्स की दिनचर्या पर वापस लौट जाएंगे। और हेड लाइन मैनेजमेंट का थिंक टैंक नई स्ट्रैटेजिस बनाने में लग जाएगा। 

शुभ रात्रि

फ़्रीवास्तवजी
(फ़्री स्पीच वाले)
freevastav.com


*आज की context में गंगा स्नान बोलना सही नहीं है। मोदी जी भी जिस दिन रो पड़े थे बनारस के स्वास्थ्य विभाग से बात करते करते, उस दिन भी उन्होंने गंगा शब्द को बोलना avoid किया था और बनारस को अन्नपूर्णा की नगरी कह कर संबोधित किया था। 



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