अजीब सी एक विडंबना है, कि हमारी सरकार खबरों को दबाने की कोशिश करती है; और यही कोशिश अपने में एक खबर बन जाती है.
खबरों को दबाने की कोशिश अपने में एक खबर हो जाती हैं।
चाहे वह ट्रम्प आगमन पर झुग्गी झोपड़ियों की बस्ती के आगे की दीवार हो,
रिहाना के एक ट्वीट से मची अफरा-तफरी हो, टूलकिट गैंग का मुद्दा हो,
शमशानों की टेम्पररी दिवार, ऑ
oxygen सिलिंडर मांगने पर F.I.R ,
कोर्ट में सरकार के झूठे एफिडेविट,
हॉस्पिटल्स में आम आदमी के लिए नो रूम और VIP मरीजों के लिए रिजर्व्ड बेड;
Australia के अख़बार को हाई कमीशन की फटकार ........ लम्बी लिस्ट हैं
खबरों को दबाने की कोशिश अपने में एक खबर हो जाती हैं।
इतनी सीधी सी बात सरकारों को क्यों नहीं समझ आती हैं?
सरकार के सलाहकार सरकार के लिए काम कर रहे हैं या फिर विपक्ष के लिए? या फिर ऐसा हो सकता है कि सरकार के सलाहकार लोगों के पास कॉमन सेंस की किल्लत हो रही हो।
लेकिन सुना है कि प्रधानमंत्री कार्यालय में, सभी मंत्रालयों में, और सचिवालयों में बड़े-बड़े आईएएस अधिकारी काम करते हैं। आईएएस लोगों के ऊपर कॉमन सेंस ना होने का आरोप लगाना तो गलत होगा। आखिरकार इतनी कठिन परिश्रम और दुनिया की सबसे कठिन परीक्षाओं को क्लियर करके या नौकरी पाते हैं। सुना तो हमने ऐसा भी हैं की नेता तोह आते हैं जाते हैं; मगर देश तो Bureaucrats ही चलाते हैं.
जनता फिर भी अपने नेता को 5 साल के बाद बाहर का रास्ता दिखा सकती हैं; मगर सिस्टम के रहनुमाँ कार्यपालिका का दीमक कैसे हटेगा?
शायद लोकपाल इसी के लिए बना था!
बना था न? बनेगा?
हत्या कर दिया गया?
एक्टिव हैं? अच्छा किसी parallel universe में एक्टिव हैं
खबरों को दबाने की खबर, खबर बन जाती होगी। लेकिन अंततः खबरे मर ही जाती हैं. क्योंकि हमारी memory का बैंडविड्थ लिमिटेड हैं. आज की भसड़; में हम गुजरे कल की खबर कैसे याद रख सकते हैं?
कंगना रनौत जैसे Whistle blowers अगर याद दिलाते भी हैं; तो अपना twitter अकाउंट permanently suspend करवा बैठते हैं :(
आवाज़ उठते ही दबा दी जाती हैं
मीडिया को तो काफी लंबे समय से कंट्रोल किया जा रहा है। लेकिन कंट्रोल करने की कोशिश अब सोशल मीडिया तक पहुंच गई है।
Fake news factory चला रहे राजनीतिक दल रियल न्यूज से परेशान होते दिखते हैं। और उनकी सरकारें सोशल मीडिया पर भी अपनी परेशानियों को बयां कर रहे यूजर्स के ऊपर F.I.R तक कर देते हैं।
यही पुलिस जो बड़े से बड़े अपराध की शिकायत और रिपोर्ट को दर्ज करने के लिए आम आदमी को नाकों तले चने चबवाती हैं, वही पुलिस एक मामूली से फेसबुक पोस्ट का संज्ञान लेकर यकायक एक्शन में भी आ जाती है।
इसको सिस्टम की थिअरी आफ रिलेटिविटी कहते हैं।
आम आदमी का जीवन कोर्ट कचहरी के चक्कर में गुजर जाता है। मामला पेचीदा हो तो आदमी का जीवन ही नहीं उसके अगले 2-4 जनरेशन भी इसी चक्कर में; चक्कर लगाते गुजर जाते हैं।
उनको मिलती हैं तो सिर्फ एक तारीख।
लेकिन ऐसा भी होता है कि प्रकाश की गति से भी तेज एक्ट करके, सुप्रीम कोर्ट किसी भी मामले को suo moto के आधार पर स्वयं से उठा लेती है। मामले का निबटारा भी हो जाता हैं; एक रुपया सांकेतिक जुर्माना के रूप में.
और अक्सर ऐसा भी होता हैं जरुरी केसेस के बीच ढेर साड़ी पब्लिक हॉलीडेज भी आ जाती हैं.
इसी को सिस्टम की थिअरी आफ रिलेटिविटी कहते हैं।
तो सवाल यह उठता हैं की खबरों को दबाने की जरुरत क्यों पड़ती हैं? अच्छा काम करेंगे तो इमेज वैसे ही अच्छा रहेगा!
इमेज makeover की कोई जरुरत ही नहीं होगी।
in an ideal world , ऐसा ही होगा
लेकिन शायद सरकारे और राजनैतिक दाल इस बात से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते
ऊपर से सोशल मीडिया और इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी ; चुनाव प्रचार तो साल भर चलता रहता हैं.
और वोट डालने के time पर चुनाव आयोग का अपना मनरेगा चलता हैं जिसमे मजबूरों को अपनी दिहाड़ी लेने के लिए भारी से भारी संख्या में रैलियों में जाना पड़ता हैं.
इसलिए खबरों को दबाया जाता हैं; मुद्दों को भटकाया जाता हैं. और हमारा क्या हैं हमारी मेमोरी लिमिटेड हैं; हम बातें भूल जाते हैं और जीवन में आगे बढ़ जाते हैं!
आपके क्या विचार हैं ? कमैंट्स में बताये
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