मिडिल क्लास मिलिटेंसी | एक obidient आंदोलन

मिडिल क्लास मिलिटेंसी, इस शब्द को मैंने श्रीलाल शुक्ल के व्यंग लेख "सफ़ेद कालर का विद्रोह" में पढ़ा था. शुक्लजी वही "रागदरबारी" वाले। इस लेख में शुक्लजी ने सफ़ेद कालर के उपभोगतावाद पर कटाक्ष मारा था। मिडिल क्लास मिलिटेंसी एक ऐसा आंदोलन हैं जिसका कोई सत्ता पर प्रभाव नहीं और जिसकी कोई पहचान भी नहीं। यह एक ओबीडियन्ट आंदोलन हैं.


सोशल मीडिया के इस्तेमाल की वजह से हर मद्धम वर्गी व्यक्ति को अपने आक्रोश की अभिव्यक्ति के लिए एक सुलभ प्लेटफार्म मिल गया हैं। अब एक आम आदमी को अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए किसी अखबार के संपादक को पत्र नहीं भेजना पड़ता। अब वह अपने विचार सोशल मीडिया पर दिल खोल कर रख सकता हैं. यह अलग बात हैं की उसकी organic reach कैसी हैं। 

मगर अब वह अपनी अभिव्यक्ति का इंस्टेंट नूडल २ मिनट में potentially पूरी दुनिआ के साथ शेयर कर सकते हैं। शुरुआत के दिनों में सोशल मीडिया खुद के प्रचार का माध्यम था।  टेक्निकली अभी भी यह वही हैं. बस अब फ़र्क़ इतना हैं की खुद की परिभाषा में एक Paradigm Shift  देखने को मिल रहा हैं। 

अभिव्यक्ति और आक्रोश एक दूसरे के पूरक हैं. अगर आक्रोश नहीं हैं तोह अभिव्यक्ति की क्या आवश्यकता हैं। बिना आवश्यकता, मनुष्य एक सन्यासी हो जाता हैं. लेकिन आज की परिश्थिति में तो सन्यासी भी सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर होते हैं. क्योंकि हम इनफार्मेशन ऐज में जी रहे हैं.  

आक्रोश की वजह से माध्यम वर्गी के सकारातमकता में भी एक आक्रत्मकता नज़र आती हैं. जब वह नकारात्मक होता हैं तब वह और भी ज्यादा आक्रामक हो जाता हैं. लेकिन उसका आक्रोश दिशा हीन होता हैं। इसकी वजह से वह खुद एक बहुत बड़े उपभोक्तावाद के कुँए में जीता रहता हैं. यह उपभोक्तावाद इंटरनेट के ब्रह्माण्ड में फैला हुआ हैं.

यहाँ तक की राजनीती भी ऐसी उपभोक्तावाद के इंजन से दौड़ रही हैं. आज हमारे नेता एक ऐसे प्रोडक्ट हो गए हैं जिसकी छवि हम सोशल मीडिया पर ख़रीदे और बेचते हैं. सोशल मीडिया पर हम एक दूसरे की छवियों के क्रेता और विक्रेता ही तो होते हैं। अपना अटेंशन दुसरो को देना और दुसरो का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करना। यही लेन देन तो चलता हैं.

इसी मार्केट प्लेस में उत्पाद (और राजनेता) भी हमारी खरीद फरोक्त का हिस्सा बन जाते हैं.

सोशल मीडिया पर समय और अटेंशन के लेन देन से एक पैटर्न भी विकसित होता हैं; जिसके मायाजाल में हम फास जाते हैं. हमें फिर वही दिखाया या परोसा जाता हैं जो हम देखना और सुनना चाहते हैं. एक जैसी बातें; जैसा हम खुद सोचते हैं; वैसा ही सोचने वाला हमसे जुड़ जाता हैं.

जैसे सोशल मीडिया पर विचारो का arrange marriage हो रहा हो. सोशल मीडिया के इस कुंडली मिलान को टेक्निकल भाषा में echo chamber कहते हैं. ऐसी echo chamber में हमारा brain hack करने वाले पूर्वाग्रहों की खेती करते हैं.  हमें पता नहीं चलता और हमारे मस्तिष्क में पूर्वाग्रहों के बीज डाल दिए जाते हैं। 

इसीलिए मिडिल क्लास मिलिटेंट अपने से उलट; विरोधी विचारधारा को लेफ्ट या राइट बोल कर उलाहना देता हैं. troll करते हैं।  लेकिन, दोनों लेफ्ट और राइट विचारधारा वाले यह भूल जाते हैं की वह मिडिल (क्लास) पहले हैं; बाकी जो कुछ भी हैं, वह बाद में हैं।  

तो एक माध्यम वर्गी मानव फेसबुक ट्विटर पर क्या ही अभिव्यक्त कर सकता हैं? सोशल मीडिया पर doom scrolling करने के बाद जब उसके चेतना की जाग्रति होती हैं तो फिर वह अपने आक्रोश की अभिव्यक्ति अपने शब्दों में करके, वापस नए टॉपिक पर स्विच कर जाता हैं. क्योंकि उसको बहुत सी बातों पर अपनी राय रखनी ही हैं।  यह उसका moral obligation हैं। 

उसके ऊपर एक information overload हो रखा हैं। उसकी todo list (timeline ) अनंत हैं। मिडिल क्लास warrior पूरी तरह से distracted होता हैं। और अगर वह focus करता भी हैं तो यह फोकस उसको उसके पूर्वाग्रह ही करवा रहे होते हैं।       

नींद की तो बात करना भी व्यर्थ हैं. थोड़ा बहुत जो भी वह सोता हैं; उसका अंतर्मन यह सब कुछ revise कर रहा होता हैं.

पूरा का पूरा मिडिल क्लास सोशल मीडिया के इस matrix मायाजाल में फसा हुआ हैं।  और इस पुरे सिस्टम को कण्ट्रोल करने वाले आश्वस्त हैं की मिडिल क्लास मिलिटेंसी कोई भी revolution लेकर नहीं आएगी; क्योंकि माध्यम वर्ग की जन चेतना एक obedient अन्दोलन से ज्यादा कुछ नहीं..... 

फ़्रीवास्तवजी
(फ़्री सपीच वाले)
freevastav.com  

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